सुधार की राह में शिथिलता: जब सरकार की ढील जनता के उत्साह को मार देती है

सुधार की राह में शिथिलता: जब सरकार की ढील जनता के उत्साह को मार देती है

कृपा शंकर चौधरी 

किसी भी समाज या देश में सुधार केवल सरकार के आदेश से नहीं होता, बल्कि जनता की भागीदारी और प्रशासन की दृढ़ता दोनों से ही संभव होता है। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे देश में अक्सर यह देखा गया है कि जब कोई सुधारात्मक पहल शुरू होती है, तो आरंभिक उत्साह के बाद सरकारी स्तर पर शिथिलता आ जाती है — और जो परिवर्तन समाज में पनपने लगता है, वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।

प्लास्टिक प्रतिबंध इसका सबसे सटीक उदाहरण है। कुछ वर्ष पूर्व जब सरकार ने प्लास्टिक बैग, झोले और अन्य प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी, तो आम जनता ने इसे खुले मन से स्वीकार किया। लोग अपने घरों से कपड़े के झोले लेकर निकलने लगे। दुकानदारों ने भी शुरू में सहयोग दिखाया। ऐसा लगा कि सचमुच यह देश “सिंगल यूज़ प्लास्टिक” से मुक्ति की ओर बढ़ रहा है।

परंतु यह सुधार ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका। सरकार ने जनता में जागरूकता तो फैलाई, लेकिन प्लास्टिक बनाने वाली कंपनियों पर कठोर कार्रवाई नहीं कर सकी। जिन फैक्ट्रियों और इकाइयों को बंद होना था, वे आज भी किसी न किसी "जुगाड़" या संरक्षण के कारण चालू हैं। परिणामस्वरूप, धीरे-धीरे बाजार में फिर वही पुराने प्लास्टिक बैग लौट आए — और जनता, जो कुछ दिन पहले तक सुधार की दिशा में बढ़ रही थी, एक बार फिर उसी पुराने ढर्रे पर लौट आई।

यह केवल प्लास्टिक की कहानी नहीं है। यह हर उस सुधार की कहानी है, जो समाज में आरंभ तो जोश के साथ होता है, परंतु सरकारी तंत्र की ढिलाई, भ्रष्टाचार, और नियंत्रणहीन व्यवस्था के कारण दम तोड़ देता है। चाहे वह सिंगल यूज़ प्लास्टिक हो, सड़क सुरक्षा अभियान, गड्ढा मुक्त सड़कें हों या फिर जल संरक्षण की मुहिम — हर जगह शुरुआत में ‘संकल्प’ और अंत में ‘शिथिलता’ दिखाई देती है।

दरअसल, किसी सुधार का स्थायित्व तब तक नहीं बन सकता जब तक सरकार अपनी नीतियों के क्रियान्वयन पर लगातार निगरानी और जवाबदेही न रखे। अगर प्लास्टिक बैन के समय अवैध फैक्ट्रियों की पहचान कर उन पर समय से कार्रवाई की जाती, तो आज बाजार में पुनः प्लास्टिक की बाढ़ नहीं आती।

जनता हमेशा तैयार रहती है बदलाव के लिए, बशर्ते उसे भरोसा हो कि सरकार अपने वादों पर अटल है। सुधार का बीज तभी पेड़ बन सकता है जब उसे निरंतरता और ईमानदार नीति-निर्माण की खाद मिले।

अब आवश्यकता इस बात की है कि सरकार केवल नियम बनाने तक सीमित न रहे, बल्कि उनके पालन में दृढ़ता दिखाए। क्योंकि जब सरकार शिथिल होती है — तो सुधार मर जाता है।

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