मुख्यमंत्री से शिकायत: लोकतंत्र की जागरूकता या व्यवस्था की कमजोरी?

मुख्यमंत्री से शिकायत: लोकतंत्र की जागरूकता या व्यवस्था की कमजोरी?

कृपा शंकर चौधरी 

भारत का लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि एक जीवंत आस्था है — “जनता की सरकार, जनता के द्वारा, और जनता के लिए।” यही वह विचारधारा है जिसने इस देश को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया। यहां जनता अपनी सरकार को चुनती है, और सरकार का प्रथम धर्म है — जनता की सेवा।

राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री इस लोकतंत्र की आत्मा हैं। वह न केवल राज्य की नीतियों के निर्माता होते हैं, बल्कि जनता की आकांक्षाओं को दिशा देने वाले सूत्रधार भी हैं। मुख्यमंत्री से जनता को आशा होती है कि वह हर नागरिक के जीवन में विकास और न्याय की रोशनी पहुंचाएंगे।

परंतु बीते कुछ वर्षों में एक नया परिदृश्य उभरकर सामने आया है — अब जनता अपनी समस्याओं को स्थानीय अधिकारियों या प्रतिनिधियों तक सीमित नहीं रखती, बल्कि सीधे मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगी है। सोशल मीडिया पर टैग करना हो, हेल्पलाइन पर कॉल करना हो या जनसुनवाई में मुख्यमंत्री से मिलना — लोग अब “सीधे शीर्ष तक” पहुंचने को ही समाधान मानने लगे हैं।

पहली नज़र में यह लोकतंत्र की परिपक्वता लग सकती है — जनता जागरूक हो रही है, अपनी बात रखने में संकोच नहीं करती। परंतु यह तस्वीर का केवल एक पहलू है। असल में यह प्रवृत्ति शासन व्यवस्था की जड़ों में दरार का संकेत है। जब जनता नीचे के स्तर पर अपनी बात मनवाने में असमर्थ हो जाती है, तभी वह “ऊपर” तक पहुंचने को विवश होती है।

लोकतंत्र की संरचना एक सीढ़ी के समान है — ग्राम प्रधान, पंचायत सदस्य, पार्षद, विधायक और अंततः मुख्यमंत्री। यह पूरी श्रृंखला तभी सुचारु रूप से चल सकती है जब प्रत्येक स्तर अपनी जिम्मेदारी निभाए। किंतु जब लोग सीधे मुख्यमंत्री से गुहार लगाने लगते हैं, तो यह न केवल स्थानीय प्रशासन की विफलता का परिचायक है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि जनता का विश्वास निचले स्तर से उठ चुका है।

मुख्यमंत्री राज्य का सर्वोच्च कार्यकारी पद है, जिसका काम नीतियों का निर्माण, दिशा-निर्देश देना और राज्य की प्रगति की रूपरेखा तय करना है। यदि हर नागरिक अपनी व्यक्तिगत समस्या लेकर मुख्यमंत्री तक पहुंचेगा, तो शासन का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक है। मुख्यमंत्री की ऊर्जा नीति-निर्माण की बजाय सूक्ष्म मामलों में उलझ जाएगी, और परिणामस्वरूप राज्य के बड़े लक्ष्य अधूरे रह जाएंगे।

यह प्रवृत्ति केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक खतरा भी बन सकती है। जब जनता को पता हो कि मुख्यमंत्री तक सीधे पहुंचा जा सकता है, तो निचले अधिकारी और जनप्रतिनिधि जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं। वे जानते हैं कि मुख्यमंत्री स्वयं हर मामले में हस्तक्षेप करेंगे, तो उन्हें अपने स्तर पर सक्रिय रहने की आवश्यकता नहीं। यह स्थिति धीरे-धीरे “प्रशासनिक मोनोपोली” को जन्म देती है — जहां अधिकारी जनता की शिकायतों को अनसुना करने लगते हैं, क्योंकि उन्हें ऊपर से कोई भय नहीं रहता।

मुख्यमंत्री की गरिमा और प्रभावशीलता तभी बनी रह सकती है जब उनके अधीन कार्यरत अधिकारी और प्रतिनिधि अपनी भूमिका निष्ठा और जवाबदेही से निभाएं। यदि जनता की समस्या जिला या ब्लॉक स्तर पर ही सुलझ जाए, तो मुख्यमंत्री का समय राज्य की नीतियों, विकास योजनाओं और दीर्घकालिक दृष्टि पर केंद्रित रह सकेगा।

लोकतंत्र का असली अर्थ यही है कि आवाज नीचे से उठे और ऊपर तक पहुंचे, न कि ऊपर से नीचे गिरे। जब जनता का विश्वास अपने प्रधान, पार्षद, अधिकारी और विधायक पर कायम रहेगा, तभी लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी।

आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अपने प्रशासनिक ढांचे को पारदर्शी और जवाबदेह बनाए। शिकायत निवारण प्रणाली को स्थानीय स्तर पर सशक्त किया जाए, और प्रत्येक अधिकारी की जिम्मेदारी स्पष्ट रूप से तय हो। जनता और शासन के बीच संवाद की संस्कृति को पुनर्जीवित करना ही इस समस्या का स्थायी समाधान है।

मुख्यमंत्री तक पहुंचना जनता का अधिकार है — परंतु हर छोटी-बड़ी शिकायत लेकर वहां तक जाना, प्रणाली की कमजोरी का प्रतीक है। यदि लोकतंत्र को सशक्त बनाना है, तो मुख्यमंत्री को नीति-निर्माण पर और स्थानीय प्रशासन को जनता के जुड़ाव पर केंद्रित होना होगा। तभी यह व्यवस्था वास्तव में कहलाएगी —
“जनता का शासन, जनता द्वारा, और जनता के लिए।”

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